Tuesday, August 2, 2011

चलो तो एक बार ....

यूँ ही चलते चलते कभी तो मिलेगा वो क्षितिज,

कल जो साँझ ढली थी तो क्या, आज फिर निकला है सूरज,

नयी किरण, नयी धूप, नया सा शोर पर रास्ता उसी क्षितिज की ओर,

कोई दो सोच नहीं की क्षितिज नहीं मिलेगा,

न जाने कितने रस्ते जाते है उस ओर,

पर उनपे चलने वाले बहुत कम ही मिलते हैं,

जहाँ मिलती है हर सुबह एक नयी चाह उस तक पहुँचने को,

वो सोच बहुत कम ही मिलती है,

उस अभिलाषित पल का रूप बड़ा ही अतुल्य है,

कहीं स्वर्णिम आकाश, कहीं कल कल स्वच्छ नदी, कहीं कलरव, कहीं कुछ और जो कहीं नहीं,

चलो एक बार चलके तो देखो उस श्वेत राह पे,

क्या पता शायद ये वही हो जो तुम ढूंढ रहे थे अनगिनत वर्षों से .........................

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