सुबह सुबह जो मै निकला था खुली धूप में,
एक छाँव की तलाश में ही चला था हर पल,
न मैंने देखा की मुझे छाँव चाहिए भी नहीं,
न मैंने सोचा की मुझसे ज्यादा किसी और की जरूरत है,
जाने कहाँ से मिलते गए मुझे छाँव बेचने वाले,
जाने कब मै उनसे सहारे खरीदता चला गया,
ये सिलसिला यूँ चला की मै खुद को खो बैठा,
और जाने कब वो साहूकार मुझपे हावी हो बैठा,
आज सुबह सुबह आई आवाज़ की पकडो उस साहूकार को,
खिडकी से बाहर झाँका तो पूरी गली भरी है भीड़ से,
कोई कहता है वो चोर है कोई कहता है मारो इसे,
मगर ये बात मै और वो भी भूल गए कहीं,
की हम भी हिस्सेदार हैं बराबर के इस गुनाह में,
चलो अब बात करें उसकी जिसे उस छाँव की जरूरत थी,
वो जो सुबह निकला था छाँव नहीं भूख बुझाने को,
वो जहाँ भी गया न दे पाया उस आह का मोल,
न ले पाया वो जगह अपनी काबिलियत से,
जाने कब से वो कोशिश में है वो लम्हा जी लेने के,
पर हर पल मिलता है उसे वही मोटा साहूकार हाथ बढ़ाये,
आज सुबह का जो शोर देखा जो जोश सुना,
मन कूद पड़ा छत से गलियारे में की मै भी आता हूँ,
चलो आज उतार दें, अपनी छाँव ढूढ़ने की चाहत को,
चलो आज उठाएँ हौसला उस साहूकार को गिरा देने की .......
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