Sunday, August 21, 2011

अब न जागे तो....

अब न जागे तो जागने का मौका ही न मिलेगा,
अब न उतरे दौड में तो कभी दौड ही न पाओगे,

न कह दूसरों को की तेरे किये वो लड़ बैठें,
कल न कहना की अफ़सोस मैं भी जाता,

हैं आज वो तीन रंग पुकारते उतरने को तेरी रग में,
की न कर उनको दरकिनार एक कोने में सजाके........

चलो आज उतार दें अपनी छाँव ढूँढने की चाहत....

सुबह सुबह जो मै निकला था खुली धूप में,
एक छाँव की तलाश में ही चला था हर पल,
न मैंने देखा की मुझे छाँव चाहिए भी नहीं,
न मैंने सोचा की मुझसे ज्यादा किसी और की जरूरत है,
जाने कहाँ से मिलते गए मुझे छाँव बेचने वाले,
जाने कब मै उनसे सहारे खरीदता चला गया,
ये सिलसिला यूँ चला की मै खुद को खो बैठा,
और जाने कब वो साहूकार मुझपे हावी हो बैठा,
आज सुबह सुबह आई आवाज़ की पकडो उस साहूकार को,
खिडकी से बाहर झाँका तो पूरी गली भरी है भीड़ से,
कोई कहता है वो चोर है कोई कहता है मारो इसे,
मगर ये बात मै और वो भी भूल गए कहीं,
की हम भी हिस्सेदार हैं बराबर के इस गुनाह में,
चलो अब बात करें उसकी जिसे उस छाँव की जरूरत थी,
वो जो सुबह निकला था छाँव नहीं भूख बुझाने को,
वो जहाँ भी गया न दे पाया उस आह का मोल,
न ले पाया वो जगह अपनी काबिलियत से,
जाने कब से वो कोशिश में है वो लम्हा जी लेने के,
पर हर पल मिलता है उसे वही मोटा साहूकार हाथ बढ़ाये,
आज सुबह का जो शोर देखा जो जोश सुना,
मन कूद पड़ा छत से गलियारे में की मै भी आता हूँ,
चलो आज उतार दें, अपनी छाँव ढूढ़ने की चाहत को,
चलो आज उठाएँ हौसला उस साहूकार को गिरा देने की .......

जिंदा है मेरे लहू का रंग...

अब तो है फट पड़ा लहू मेरी आँखों से,
उलझ सा गया था रगों में ही घुटके,
है खींचती वो चीख मेरी सांसें,
की अब दिल निकलके सड़कों पे है आता,
चलो कम से कम उस शोर का साथ ही छू लो,
की नाम जुड जाए नयी सुबह की ताजपोशी में,
लगा मुझे की जिंदा है अब भी मेरे लहू का रंग.......

उफ़ ये बेबसी ......

पुकार रहा ज़मीर की आओ चलें एक जोश होके,
उफ़ ये बेबसी कैसी, ये दीवारों की घुटन कैसी,
लहू में उठता है उबाल की फट पड़े बादलों सा,
उफ़ ये कमजोरी कैसी, ये हथेली में नमी कैसी,
कब तक दबाओगे अपने साँसों की उफ्नाहट,
उफ़ ये डर कैसा, ये पैरों में जकडन कैसी,
कुछ चार जमा लोग वो भी हैं जो लड़ रहे खुले आसमान में,
उफ़ ये मेरी और उनकी जंग का सवाल कैसा,
ये देश जो पुकार रहा की बचा लो उसे,
उफ़ ते हम कैसे, ये हमारे कानो में रुई कैसी,
उफ़ ये बेबसी कैसी, ये दीवारों की घुटन कैसी..........

Wednesday, August 10, 2011

आओ न देखें नाव की मजबूती...

आओ न देखें नाव की मजबूती या की हवा का रुख,

देखना है तो बाजुओं में रवानी और लहू में उबाल,

चलके कहीं जो बैठ जाये छाँव में धूप से थककर,

आओ छोड़ उस परछाई को बढ़ चलें,

न राह, न रुख, न पहर, न थकन, देखें तो सिर्फ मंजिल,

की चल पड़े हैं तो पहुंचेगे ही गर कहीं सांसें न छूटी,

मेरे पसीने का नमक ही मेरी आँखों का जब सुरमा बन जाये,

आओ चलें जब तक की हर चाल चल पड़े,

जो पहुंचे मंजिल तक तो फिर कुछ और देखेंगे,

जो न पहुंचे क़यामत तक भी तो अगली दफा सोचेंगे....

Tuesday, August 2, 2011

चलो तो एक बार ....

यूँ ही चलते चलते कभी तो मिलेगा वो क्षितिज,

कल जो साँझ ढली थी तो क्या, आज फिर निकला है सूरज,

नयी किरण, नयी धूप, नया सा शोर पर रास्ता उसी क्षितिज की ओर,

कोई दो सोच नहीं की क्षितिज नहीं मिलेगा,

न जाने कितने रस्ते जाते है उस ओर,

पर उनपे चलने वाले बहुत कम ही मिलते हैं,

जहाँ मिलती है हर सुबह एक नयी चाह उस तक पहुँचने को,

वो सोच बहुत कम ही मिलती है,

उस अभिलाषित पल का रूप बड़ा ही अतुल्य है,

कहीं स्वर्णिम आकाश, कहीं कल कल स्वच्छ नदी, कहीं कलरव, कहीं कुछ और जो कहीं नहीं,

चलो एक बार चलके तो देखो उस श्वेत राह पे,

क्या पता शायद ये वही हो जो तुम ढूंढ रहे थे अनगिनत वर्षों से .........................