Sunday, September 30, 2007

वो मजदूर

वो मजदूर, दिखता है जो धूल में सना,
वो मजदूर, रखता है जो ईंट पे ईंट,
हाँ, वो मजदूर ही तो है, रहता है जो खुली छत में,
रहता है सारी रात ओस में, देने को हमें मजबूत बसेरा,
क्या वो मजदूर है, जो बनाता है हमारे सपनो को सजीव,
मूर्ख हैं हम सोचते हैं जो दम है हमारे पैसों का,
ग़र कहीँ पैसा न दे पाए उस मजदूर के हाथ,
होंगे कैसे ये मीनारों पे मीनार,
कैसे होंगी ये सीढ़ियों पे सीढियाँ..........

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