वो मजदूर, दिखता है जो धूल में सना,
वो मजदूर, रखता है जो ईंट पे ईंट,
हाँ, वो मजदूर ही तो है, रहता है जो खुली छत में,
रहता है सारी रात ओस में, देने को हमें मजबूत बसेरा,
क्या वो मजदूर है, जो बनाता है हमारे सपनो को सजीव,
मूर्ख हैं हम सोचते हैं जो दम है हमारे पैसों का,
ग़र कहीँ पैसा न दे पाए उस मजदूर के हाथ,
होंगे कैसे ये मीनारों पे मीनार,
कैसे होंगी ये सीढ़ियों पे सीढियाँ..........
Sunday, September 30, 2007
जब तक क्षितिज ना मिल जाये
जब तक क्षितिज ना मिल जाये, तब तक चलना है,
ज़मीं को ना मिला दें आसमान से तब तक चलना है।
सूरज को है गुमान, है वो आसमां पे,
आसमान को ज़मीं पे ना ला दें तब तक चलना है।
कल खेलेगा सूरज संग हमारे, बैठेगा चांद आंगन अपने,
हो जाये इतने ऊँचे, ना छूटे कुछ भी ऊँचा, तब तक चलना है।
ना रुकेंगे कभी चलते चलते, ना थमेंगे कभी बढ़ते बढ़ते,
लहू में उतरेगी जब तक साँस तब तक चलना है।
चलते चलते जब रुकने लगें, बढते बढते एक रोज़ जब थमने लगें कदम,
मिल ना जाये एक जिन्दगी और चलने को तब तक चलना है.............
ज़मीं को ना मिला दें आसमान से तब तक चलना है।
सूरज को है गुमान, है वो आसमां पे,
आसमान को ज़मीं पे ना ला दें तब तक चलना है।
कल खेलेगा सूरज संग हमारे, बैठेगा चांद आंगन अपने,
हो जाये इतने ऊँचे, ना छूटे कुछ भी ऊँचा, तब तक चलना है।
ना रुकेंगे कभी चलते चलते, ना थमेंगे कभी बढ़ते बढ़ते,
लहू में उतरेगी जब तक साँस तब तक चलना है।
चलते चलते जब रुकने लगें, बढते बढते एक रोज़ जब थमने लगें कदम,
मिल ना जाये एक जिन्दगी और चलने को तब तक चलना है.............
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