Saturday, December 29, 2007

क्षितिज के परे

क्षितिज के परे एक लाल रंग है,
किरण किरण से जमा एक पुंज उधर ही है,
वो ज्योति नही एक उर्जा का स्फूर्त संचार है,
एक जाग्रत बाल सा अठखेलियाँ करता निर्भीक सिंह है,
एक पूर्वाभास है इस मृत्यु का उस जीवन से मिलन,
अगणित अश्वों पे सवार उन स्वेद कणों में जो चमकता है,
अनगिनत प्रयासों का जो सफल परिणाम होगा,
एक गांडीव, एक पार्थ, एक पार्थ सारथी न सही,
एक धमनी का प्रवाह, एक रक्त का संचार, एक साहस का शोर तो है,
रज कणों कि चादर तले छिप जाएगा वो पहर,
संवेग कि अनुभूति से स्पंदित हो जायेगी ये धरा,
बह चलेगा वो लाल रंग जब खुल के उन धाराओं से.......................

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