Saturday, December 29, 2007

क्षितिज के परे

क्षितिज के परे एक लाल रंग है,
किरण किरण से जमा एक पुंज उधर ही है,
वो ज्योति नही एक उर्जा का स्फूर्त संचार है,
एक जाग्रत बाल सा अठखेलियाँ करता निर्भीक सिंह है,
एक पूर्वाभास है इस मृत्यु का उस जीवन से मिलन,
अगणित अश्वों पे सवार उन स्वेद कणों में जो चमकता है,
अनगिनत प्रयासों का जो सफल परिणाम होगा,
एक गांडीव, एक पार्थ, एक पार्थ सारथी न सही,
एक धमनी का प्रवाह, एक रक्त का संचार, एक साहस का शोर तो है,
रज कणों कि चादर तले छिप जाएगा वो पहर,
संवेग कि अनुभूति से स्पंदित हो जायेगी ये धरा,
बह चलेगा वो लाल रंग जब खुल के उन धाराओं से.......................

तीन रंग

दूर कहीं उड़ चलने को कई पंख थे,
कुछ छोटे, कुछ बडे, कुछ टूटे भी थे,
पर एक साथ चलती थी सभी धड़कने,
एक ही आवाज में गाते थे सभी,
जीते वो उस खुले आकाश कि परिधि को,
एक केसरिया रंग, एक सफ़ेद, एक हरा और एक नीला भी मिला,
एक सफ़ेद सपने को रंग दिया तीन रंग में,
एक गोल सा चौबीस तीलियों का चक्र भी जड़ दिया,
फ़हरा उठी वो लाखों कि कोशिश एक दिन खुले आकाश में।

आज गर कहीं देखता कोई होगा फिर उस ध्वज को,
आज भी लहराता है वो उसी संवेग से,
पर बसती न आज हैं वो करोडो साँसे एक ही राग में,
भूले से हैं वो चका-चौंध कि भीड़ में कहीं गुमसुम,
खुश हैं खुद पे ही कि जेब हैं उनकी भरी,
एक कागज़ पे हैं चार सिंह, फिर एक सिंह, एक हाथी,एक अश्व और एक बैल भी है, उस चक्र के साथ,
सब हैं तैयार सजा के इन्हें अपने माथे पे,
पर हैं कितने जो जानते हैं इनका मतलब,
हैं कितने जो मानते हैं इन्हें अनमोल,
हैं कितने जो खुद सजना चाहते हैं इन्ही के संग ..........................